कुछ बच्चों के हाथों में हमेशा एक लालटेन होती है
कुछ बच्चों को अंधेरे में चलना कभी नहीं सिखाया जाता।
उनके हाथों में लालटेन थमा दी जाती है,
कंधों पर ऊनी चादर डाल दी जाती है,
और एक नक्शा – साफ़, सीधा, सुरक्षित – उन्हें सौंप दिया जाता है।
बाक़ी सब? वो स्विच टटोलते रहते हैं, और वो बच्चे दरवाज़े तक पहुंच जाते हैं।
यह कोई षड्यंत्र नहीं है। यह एक संरचना है – इतनी गहरी, इतनी सूक्ष्म, कि जिनके लिए यह बनी है, वे इसे देख भी नहीं पाते।
यह कहानी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, येल यूनिवर्सिटी, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी, कोलंबिया यूनिवर्सिटी, डार्टमाउथ कॉलेज, ब्राउन यूनिवर्सिटी, कॉर्नेल यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया जैसे संस्थानों के दाखिले की नहीं है — यह उनके पीछे खड़े उन विद्यालयों की कहानी है जो इन विश्वविद्यालयों के सपनों को पंख देते हैं।
यह कहानी फीडर स्कूल्स की है।
जहाँ रास्ता शुरू होता है
फिलिप्स एक्सेटर अकादमी। नाम सुनते ही लगता है जैसे यह पत्थर पर खुदा हो — 14वीं सदी की किसी शिला पर। ईंटों की लाल दीवारें, विरासत से सजी हुई कक्षाएं, और छात्र: कुछ संपन्न वंशों के, कुछ अपवादस्वरूप स्कॉलरशिप पर।
हर साल, यह विद्यालय हार्वर्ड, येल और प्रिंसटन को दर्जनों छात्र भेजता है — एक परंपरा जो शायद उन आइवी लताओं से भी पुरानी है जो इन विश्वविद्यालयों की दीवारों पर चढ़ती हैं।
दूसरी ओर, स्टाइवेसेंट हाई स्कूल है — न्यूयॉर्क का एक सार्वजनिक विद्यालय, जहां प्रतिस्पर्धा तीव्र है, छात्र प्रायः एशियाई मूल के होते हैं, और सफलता आंकड़ों को धता बताती है। यह स्कूल यह साबित करता है कि मेरिटोक्रेसी, कभी-कभी ही सही, क्लब के दरवाज़े पर दस्तक दे सकती है।
लेकिन ये उदाहरण, नियम नहीं हैं। वे अपवाद हैं — और अपवाद हमेशा नियमों की पुष्टि करते हैं।
वास्तव में, अधिकांश दाखिले आइवी लीग में उन्हीं चुनिंदा हाई स्कूलों से होते हैं, जिनके नामों में ही विशिष्टता झलकती है: होरेस मैन, ट्रिनिटी, ग्रोटन, चोएट रोज़मेरी हॉल, और हार्वर्ड-वेस्टलेक।
वॉल स्ट्रीट जर्नल की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, केवल 15 हाई स्कूल्स से ही हार्वर्ड के एक बैच का 12% हिस्सा आता है — जबकि ये स्कूल देश के 0.05% से भी कम छात्रों को पढ़ाते हैं।
यह कोई प्रवृत्ति नहीं है। यह एक डिजाइन है।
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ये स्कूल केवल कलन या शेक्सपियर नहीं पढ़ाते। ये जीवन की ऐसी रूपरेखा बनाते हैं जो दाखिला आवेदन पत्र पर चमक उठे।
एक छात्र, चोएट से, थिएटर नाट्य का सह-निर्देशन कर रहा होगा, गर्मियों में वैज्ञानिक शोध कर रहा होगा, और जूनियर छात्रों का मार्गदर्शन किसी लीडरशिप प्रोग्राम के तहत कर रहा होगा — और यह सब बारहवीं से पहले।
उनका निबंध परिपक्वता से भरा होगा, साक्षात्कार में वे आत्मविश्वास से बोलेंगे, और उनकी अनुशंसा-पत्रों में जैसे संगीत बजता होगा।
अब सोचिए उस छात्र को — नेब्रास्का के किसी ग्रामीण विद्यालय से, जो अपने भाई-बहनों की देखभाल करता है, पार्ट टाइम काम करता है, और फिर भी SAT में पूर्ण अंक लाता है।
वह शायद नज़रअंदाज़ हो जाएगा।
यहां किसी की प्रतिभा को कमतर नहीं किया जा रहा। बल्कि यह बताया जा रहा है कि संरचना किसे तराशती है — निजी काउंसलर, डोनेशन देने वाले माता-पिता, और एक ऐसा नेटवर्क जो दरवाज़े खोलने से पहले ही ताले खोल देता है।
इन छात्रों को सफलता का अभिनय सिखाया जाता है — उससे पहले कि सफलता दस्तक दे।
मेरिटोक्रेसी का भ्रम
आइवी लीग खुद को “मेहनत और प्रतिभा” का अंतिम किला बताती है। और हाँ, कई छात्र वाकई शानदार होते हैं — कठिन परीक्षाएं पास करते हैं, असाधारण निबंध लिखते हैं।
पर सच्चाई यह है: मेरिटोक्रेसी कोई विशेषाधिकार का विरोध नहीं है। कभी-कभी यह विशेषाधिकार का ही एक नया चेहरा होता है।
जैसे हार्वर्ड की “Z-list” — एक गुप्त सूची, जिसमें विशेष संबंधों वाले छात्रों को एक साल देरी से दाखिला मिलता है। या “legacy preference” — एक व्यवस्था जिसमें पूर्व छात्रों के बच्चों को बढ़त दी जाती है, भले ही उनके अंक सामान्य हों।
पत्रकार डैनियल गोल्डन ने अपनी किताब The Price of Admission में दिखाया कि डोनेशन, सेलिब्रिटी प्रभाव, और पारिवारिक संबंध कैसे व्यक्तिगत कथनों की तुलना में अधिक वजन रखते हैं।
फीडर स्कूल्स यह जानते हैं। वे छात्रों को सिर्फ योग्य नहीं बनाते। वे उन्हें वांछनीय बनाते हैं — उस भाषा में जो एडमिशन ऑफिस में बोली जाती है।
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दाखिला सिर्फ पहला दरवाज़ा है। असली असर तो उस के बाद शुरू होता है — एक माहौल जिसमें कुछ लोग पहले से ही सहज होते हैं।
प्रिंसटन विश्वविद्यालय के दो नवागंतुकों की कल्पना कीजिए। एक फिलिप्स एंडोवर से आया है। दूसरा डेट्रॉइट के एक पब्लिक स्कूल से।
एक जानता है कि प्रोफेसर के साथ कॉफ़ी कैसे पी जाए। दूसरा अभी सीख रहा है कि ऑफिस आवर्स क्या होते हैं।
यह बुद्धिमत्ता की बात नहीं है। यह “संस्थानिक भाषा” में प्रवीणता की बात है — जो स्कूलों में नहीं, माहौल में सिखाई जाती है।
फीडर स्कूल्स अकादमिक संस्थान नहीं, सांस्कृतिक परिष्कार केंद्र हैं।
राष्ट्र का आईना
अब सवाल उठता है: विकल्प क्या है? क्या इन फीडर स्कूल्स को तोड़ा जाए? ‘legacy admissions’ को हटाया जाए? एडमिशन ऑफिस की आंखों पर पट्टी बांधी जाए?
यह सवाल किसी व्यक्ति विशेष की मंशा का नहीं, बल्कि एक प्रणाली की संरचना का है।
फीडर स्कूल्स अमेरिका के उस तंत्र का आईना हैं जो असमानता पर टिका है — ज़िप कोड, टैक्स ब्रैकेट, और निजी बंदोबस्तों से बना एक जाल।
और आइवी लीग? वह उसका सबसे सुशोभित अध्याय है।
फिर भी परिवर्तन हो रहा है। धीरे-धीरे, जैसे लहरें रेत की महलों को गिराती हैं।
कुछ संस्थान ‘legacy preference’ को खत्म कर रहे हैं — एमहर्स्ट कॉलेज ने ऐसा कर इतिहास रचा। कहीं वित्तीय सहायता बढ़ रही है, कहीं एआई-आधारित ‘ब्लाइंड रिव्यूज़’ पर प्रयोग हो रहे हैं।
लेकिन पुराने नक्शे फिर भी चलन में हैं। लालटेन अब भी कुछ हाथों में दी जा रही हैं। और ब्राह्मणों के बच्चे अब भी पहले दरवाज़े तक पहुँच जाते हैं।
एक शांत क्रांति
लॉस एंजेलेस में, ‘Posse Foundation’ नामक एक संस्था वंचित छात्रों को समूहों में आइवी लीग तक पहुँचा रही है — ताकि वे एक-दूसरे का सहारा बन सकें। शिकागो में, ‘UChicago Promise’ कार्यक्रम स्थानीय छात्रों को मेंटरशिप और तैयारी देता है।
और छोटे शहरों में — जहां कोई नाम नहीं जानता — वहां शिक्षक अपने छात्रों के निबंध को आत्मा से भर रहे हैं। बिना किसी निजी सलाहकार की मदद के।
शायद सबसे क्रांतिकारी विचार यही है:
कि दाखिले करने वाले अधिकारी उस चमक को पहचान सकें — जो सीवी की चमक में नहीं, संघर्ष की आग में पलती है।
फीडर स्कूल्स हमें क्या बताते हैं
यह लेख सिर्फ आइवी लीग का नहीं है। यह अमेरिका की परंपराओं, मूल्य निर्धारण की प्रणालियों और “सफलता” की परिभाषा की परछाइयों को देखने की कोशिश है।
यह उस प्रश्न से जुड़ा है — किसे हम योग्य मानते हैं?
हर साल कुछ छात्र उन दरारों से निकल आते हैं — वे जिनके स्कूल में AP क्लास नहीं है, जिनके घर में कॉलेज का कोई इतिहास नहीं है।
वे हमें याद दिलाते हैं — कि आइवी लीग भी इंसानों से बनी है। और इंसान चौंका सकते हैं।
एक सवाल जो रह जाए
जब अगली बार कोई येल यूनिवर्सिटी या डार्टमाउथ कॉलेज में दाखिला पाए, तो यह न पूछिए:
“SAT में कितना आया?” या “क्या वह तंज़ानिया में स्वयंसेवक था?”
पूछिए:
उसे जन्म से कौन सा नक्शा मिला था?
और क्या उसने अपना नक्शा खुद बनाना सीखा?
क्योंकि वही सवाल हमें उस सच्चाई के करीब लाता है जिसे हम टालते रहे हैं —
कि समानता का अर्थ एक ही समय पर दौड़ पूरी करना नहीं है।
बल्कि एक ही रेखा से दौड़ शुरू करना है।
तब तक — कुछ हाथों में लालटेन जलती रहेगी।
और कुछ हाथ, अंधेरे में अपने उजाले का इंतज़ार करते रहेंगे।